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ऋषि अष्टावक्र ने कैसे तोड़ा आचार्य बंदी का अभिमान, जानिए कथा

 

ज्योतिष न्यूज़ डेस्क: हिंदू धर्म ग्रंथ और शास्त्रों में कई ऋषि मुनियों की कथाएं हैं जो अधिकतर लोग जानते भी हैं तो आज हम आपको एक ऐसे ही विद्वान ऋषि की कहानी बताने जा रहे हैं जिसका लोहा हर किसी ने माना। हम बात कर रहे हैं महाविद्वान ऋषि अष्टावक्र की जिन्होंने अल्प अवस्था में ही एक दम्भी आचार्य का अभिमान चूर चूर कर दिया था। तो आइए जानते हैं। 
 
दीन हीन अवस्था में दो भिक्षुक जिसमें एक अष्टावक्र और उनके एक साथी आश्रम के द्वार पर पहुंचतें हैं और द्वारपाल से पूछते हैं हम आचार्य बंदी को ढूंढ रहे हैं मैं उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने आया हूं। द्वारपाल ब्राम्हण पुत्रों तुम अभी बालक हो, आचार्य बंदी को चुनौती देने के बदले किसी आश्रम में जाकर शिक्षा ग्रहण करों। अष्टाव्रक बोले आग की एक छोटी सी चिंगारी भी पूरे जंगल को जलाकर खाक कर सकती हैं बाल पकने से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता हैं न ही घनायु और कुलीन होने से कोई बड़ा, ज्ञान की साधना करने वाला ही वृद्ध और महत होता हैं हम ज्ञान वृद्ध है इसलिए हमें भीतर जाने दो और महाराज जनक और आचार्य बंदी को हमारे आगमन की सूचना दो। अदंर से महाराज जनक ने ये सुनकर द्वारपाल को कहा उन्हें अदंर आने दों। लाठी का सहारा लेते हुए अष्टाव्रक व उनके साथी अदंर आते हैं और जैसे ही अध्ययनरत विद्यार्थियों के बीच पहुंचते हैं तो सभी उनके विकलांग शरीर को देखकर हंसने लगते हैं। 

यह देख अष्टावक्र भी जोर जोर से हंसने लगते हैं अष्टावक्र की हंसी देखकर सब चुप हो जाते है। यह सब दृश्य देखकर महाराज जनक अष्टावक्र से पूछते हैं ब्राम्हण देवता आप सभा को देख कर इस तरह क्यों हंस रहे हैं। अष्टावक्र कहते हैं महाराज मै तो यह सोच कर यहां आया कि जनक की सभा में आकर इन विद्वानों के बीच में मैं आचार्य बंदी को शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दूंगा लेकिन यहां आकर यह लगा कि यह तो मूर्खों की सभा हैं मैंने अपने हंसने का कारण तो बता दिया अब आप अपने मूर्ख विद्वानों से पूछें कि वे किस पर हंसें। मुझ पर या उस कुम्हार पर जिसने मुझे बनाया। 

राजा बोले ब्राम्हण कुमार मुझे और इन सभी को इस अज्ञान के लिए क्षमा करें पर मेरा निवेदन है कि अभी आप आचार्य बंदी से शास्त्रर्थ करने के लिए वयस्क नहीं हुए हैं आचार्य बंदी से शास्त्रर्थ करना कठिन है उनसे पराजित होने वाले को जल समाधि लेनी पड़ती है इसलिए आप और विद्याध्ययन करें। अष्टावक्र बोले राजन आचार्य बंदी से शास्त्रर्थ करने के लिए मुझ पर गुरु कृपा ही पर्याप्त हैं और जो अमर है उसे मृत्यु का क्या भय। किसी महान उद्देश्य के लिए प्राण देना मृत्यु नहीं होती आप आचार्य बंदी के सामने मुझे प्रस्तुत करें। फिर अष्टावक्र और आचार्य बंदी का शास्त्रर्थ आरंभ हुआ। जिसमें अष्टावक्र को विजय प्राप्त हुई और सभी उठकर उनको प्रणाम करते है और अष्टावक्र प्रस्थान करते हैं।