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बर्फ का असली मजा लेना हो तो घूम आइए नारकण्डा

 

लाइफस्टाइल डेस्क, जयपुर।। घुमक्कड़ी की लिस्ट में बर्फ वाली जगह के आगे टिक लग गया है। बर्फ को पंचिंग बैग बनाना था, उसे चेहरे पर रगड़ना था, उछालकर फोटो खींचनी थी, उस पर चलकर देखना था कि पैर कितना धंसते हैं अंदर, उस पर पसर जाना था। सब कर लिया बस बर्फ गिरते हुए नहीं देखी और उसमें नहाना बचा है। फिलहाल इस हसरत पर ब्रेक लग गया है। दिल भरा हुआ है क्योंकि मुझे बर्फ के साथ थोड़ा सुकून चाहिए था। वरना आसान तो मनाली भाग जाना था। एक घुम्मकड़ मिज़ाज की लड़की शुभी चंचल आपको अपनी नारकण्डा की ट्रेवल स्टोरी बता रही हैं। हाल ही में वो खुद सर्दियों के दिनों में नारकण्डा में बर्फ का मजा लेकर लौटी तो आपके साथ भी ये शेयर करना चाह रही हैं कि आखिर क्यों बर्फ का असली मजा लेने के लिए नारकण्डा जाना चाहिए।

तो सफर शुरू हुआ HRTC की वॉल्वो बस के साथ। साथ में दो दोस्त भी थे। दिल्ली में 21 दिसम्बर को ठीक-ठाक ठंड थी लेकिन मुझे थोड़ी ज्यादा ठंड लगती है। स्वेटर के ऊपर दो जैकेट चढ़ा ली थी मैंने। बस में बैठते ही समझ आ गया कि दोनों जैकेट उतरेंगी। गरमाहट के साथ सफर शुरू हुआ। रात थी तो थोड़ी देर चिट-चैट करने और हाइवे निहारने के बाद नींद आने लगी। आंख लगी और जब खुली तो हम पहाड़ों के चक्कर लगा रहे थे। मुझे लगा था कि शिमला तक का रास्ता तो इतना घुमाने वाला नहीं होगा लेकिन ये भी वैसा ही था जैसे सारे पहाड़ वाले रास्ते होते हैं।

लैंसडाउन का रास्ता याद आया। लेकिन उस रास्ते के बगल में जंगल थे। यहां तो छोटे-छोटे घर ऐसे दिखते हैं जैसे रात में जुगनू। पहाड़ के किनारे टी सेंटर, मैगी कॉर्नर, आधी लटकती गुमटियां, जुगाड़ से बने घर जिनकी सीढ़ियां भी लाल रंग से पोत दी जाती हैं। रात का अंधेरा ज्यादा कुछ देखने नहीं देता। कुछ देर बाद बोर्ड पर सोलन दिखने लगा फिर नींद नहीं आई। शिमला बस करीब ही था। बचपन में जब ठंडी जगह जाने की बात होती तो शिमला और ऊटी का ही नाम कान में पड़ता था। ये वही शिमला था। फोटो वाला शिमला याद आ रहा था। जब वी मेट और  थ्री इडियट्स वाला शिमला, लाल-हरी-नीली छत के घर वाला शिमला। 

बर्फ कहां दिखेगी? 

सुबह साढ़े पांच बजे हम शिमला पहुंच गए। मेरे दोस्त को चैन नहीं था। उसने शिमला के बस स्टॉप पर एक दुकान वाले से फिर पूछा कि बर्फ कहां दिखेगी। पता चला कि नारकण्डा में दिख जाएगी। हमने नारकण्डा की बस पकड़ी और वॉल्वो से सिटी बस में। खिड़कियां बन्द थीं लेकिन हवा सुर्र करके घुसी आ रही थी। जो दो जैकेट वॉल्वो में उतरी थीं, उनके साथ मफलर और दास्ताने हमारे ऊपर चढ़ गए। फिर वहीं पहाड़ वाला सफर। यहां दुकानें खुल रही थीं। दूध के कैरेट सड़क किनारे अपनी लाइन में सीधे खड़े थे। हम बस में बैठे कभी हाथ सिकोड़ रहे थे और कभी मफलर टाइट कर रहे थे कि हवा को घुसने की जगह न मिले। लेकिन वहां का कोई बाशिंदा न टोपी लगाए था न मफलर।

छोटे स्कूली बच्चे भी लाल रंग के कोट में हाथ डाले चले जा रहे थे। उनके कान में हवा के लिए कोई बैरिकेडिंग होगी। हम करीब 8 बजे नारकण्डा पहुंचे। जहां बस रुकी उसके सामने ही होटल था ठीक-ठाक दाम में। मगर हमें होम स्टे चाहिए था। कुछ देखे लेकिन समझ नहीं आए। चाय की तलब लगी थी। धूप दिखाई दे रही थी। धूप और चाय ने हमें एक ठिया दिखाया। सात-आठ सीढ़ियां चढ़कर चाय की खुशबू मिल गई। उसी सीढ़ी के बगल से एक और सीढ़ी गुजरी थी। बैठने के लिए बढ़िया जगह। बेंच पड़ी थी लोहे की जैसे छोटे स्टेशन पर पड़ी होती है न हरे रंग वाली। सूरज अंकल को भी वो जगह पसन्द थी, सबसे ज्यादा फोकस दे रहे थे वहीं। 

जब बर्फ दिखाई दी खैर हमने सामान उसी ठिये पर पटका और चाय पी। दुकान पर एक बच्चा दूध लेने आया था। उसकी आवाज बैठी हुई थी। मैंने पूछा यहां होम स्टे मिलता है क्या? बोला हां, मेरे घर में भी। मैंने पूछा, कितने का? वो बोला पापा को पता है। हम तीनों ने बैग उठाए और लड़के के पीछे चले। पत्थर पर सफ़ेद सा कुछ दिखा। अबे ये तो बर्फ है। 

आगे सफेदी बढ़ गई। लड़के के पीछे चलने का फायदा हुआ। बढ़िया जगह मिल गई। नाम था हर्ष विला। विला के बाहर बर्फ अच्छी तरह सजी थी। पैर रखने पर नमक जैसी मालूम पड़ रही थी क्योंकि जम गई थी। रूम में बालकनी थी जिससे सामने पहाड़ दिख रहा था जो असल में मेरा दोस्त ढूंढ रहा था। बाथरूम का पानी कटीला था और गीजर नाराज। हमने कटीले पानी का यूज़ किया। 

जूते उतारने की हिम्मत नहीं हुई फिर निकल गए बरफ ढूंढने। धूप वाली जगह चाय पी और एक जगह आलू का पराठा खाया। आलू के पराठे के साथ नारकण्डा का मैप भी मुंह जुबानी मिल गया। बताया गया जहां हम रुके हैं वहां से कुछ दूरी पर ही बर्फ है और ज्यादा बर्फ के लिए हमें हाटू पीक जाना पड़ेगा जो वो...पहाड़ पर है (उंगली से दिखाते हुए)। हाटू पीक पर जाने के लिए कपड़े जूते और गाइड की दरकार होगी। हम अच्छा कहकर बरफ देखने निकले। वहां भी छोटे बच्चे हमारे गाइड बन गए। उनसे बात हुई कि वो हमें बर्फ दिखाने के लिए कपड़े और skiing का सामान किराए पर दिलाएंगे। 

वहां पहुंचे तो एक सफेद पहाड़ था और उसके सामने भूरा मैदान। मैदान पर किराए पर मिलने वाला सामान था और कुछ मैगी की गुमटियां। सफेद पहाड़ देखकर पता चल गया कि ये दिलासा दिलाने वाली बर्फ दिखाएगा। हमने किराए के कपड़े लेने से मना कर दिया। पहाड़ पर चढ़े, फिसले (असल में फिसलने की कोशिश की, क्योंकि बरफ की लेयर पतली थी तो उसमें फिसलन नहीं थी) फ़ोटो खिंचाई, बर्फ उड़ाई। पहली बार बर्ह देखने और उसे खेलने से अजीब हंसी आ रही थी। फिर हम सफेद पहाड़ पर सबसे ऊपर चले गए। वहां धीमी धूप थी। कुछ देर वहां बैठे रहे। इन सब में करीब तीन घंटे गुज़र गए। उतरकर वापस चाय वाली जगह पर पहुंच गए। भूख लगी थी।  सामने छोटे से दरवाजे के बगल बोर्ड पर लिखा था...परांठा, चाऊमीन, मोमोज़, दाल, चावल, थुकपा (चाउमीन के सूप जैसा कुछ)। 

लड़की बहुत प्यारी थी। बातचीत में पता चला कि वो नेपाल से है। बच्ची उसकी बहन है। ख़ुद खाना बनाती है और ये छोटा सा होटल चलाती है। पति बाजार में काम करता है। मेरी मानिए तो नारकण्डा जाने वाले हर शख्स को यहीं नाश्ता, खाना करना चाहिए। इसके पहले हम लोगों ने इससे बड़े होटल में पराठे खाए थे लेकिन मज़ा नहीं आया था। यहां घर की तरह तवे से उतरकर रोटियां आती हैं। लड़की दीदी हो गईं वापसी तक। खैर उस दिन शाम को बहुत ठंड लगी। बहुत मतलब बहुत। शाम को 7 बजते-बजते पूरा अंधेरा था। जैसे गांव जल्दी सो जाते हैं।  कमरे की बालकनी से अंधेरे में पहाड़ देखा और रजाई की तीन लेयर के नीचे पैर गर्म करने की कोशिश करने लगे। विला के अंकल ने गीज़र की नाराजगी दूर कर दी थी। अब हमारे पास गर्म पानी था। ठंड इतनी थी कि हमने सुबह ही वापस जाने का तय किया और सो गए।