Uttarakhand के इस गांव में होली खेलने पर होते हैं अपशकुन, 374 सालों से नहीं मनाया गया त्योहार
लाइफस्टाईल न्यूज डेस्क।। कुछ ही दिनों में अबीर-गुलाल होली का रंग-बिरंगा त्योहार देश-दुनिया में धूम मचा देगा. उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल में भी होली के रंग बिखरने लगे हैं. वहीं, यहां के कुछ गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया जाता है. होली के दिन भी इन गांवों के लोगों की दिनचर्या सामान्य रहती है. देवी के प्रकोप के डर से रुद्रप्रयाग के तीन गांवों में पिछले 374 वर्षों से अबीर गुलाल नहीं उड़ाया गया है।
गांवों में देवी प्रकोप का डर रुद्रप्रयाग
रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के तल्ला नागपुर पट्टा के क्वीली, कुरजां और जौंदला गांव में होली का त्योहार नहीं मनाया जाता है. तीन शताब्दी पहले जब ये गांव यहां बसे थे तब से आज तक यहां के लोग होली नहीं खेलते हैं। ग्रामीणों का मानना है कि मां त्रिपुर सुंदरी के श्राप के कारण ही ग्रामीण होली नहीं मनाते हैं।
यह परंपरा 15 पीढ़ियों से चली आ रही है
ग्रामीण माता त्रिपुर सुंदरी को वैष्णो देवी की बहन कहते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक, यहां यह परंपरा 374 साल से चली आ रही है क्योंकि देवी को रंग पसंद नहीं हैं। ऐसा कहा जाता है कि कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार क्वेली, कुरज़ान और जौंदला गांवों में आकर बस गये। यहां के लोग 15 पीढ़ियों से अपनी परंपरा को कायम रखे हुए हैं। लोगों के मुताबिक, 150 साल पहले जब कुछ लोग होली खेल रहे थे तो गांव में हैजा फैल गया और कई लोगों की जान चली गई. इसके बाद से इन गांवों में दोबारा होली का त्योहार नहीं मनाया गया. लोग इसे देवी का प्रकोप मानते हैं.
कुमाऊं के कई गांवों में होली नहीं खेली जाती
कुमाऊं में होली का एक अलग ही रंग है. कुमाऊँ में होली का त्यौहार बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है। यहां की बेठकी होली, खड़ी होली और महिला होली देश-दुनिया में प्रसिद्ध है। होली का मिलन हर घर में अपना रंग जमा देता है, लेकिन सीमांत जिले पिथौरागढ़ के कई गांवों में होली मनाना अशुभ माना जाता है। सीमावर्ती पिथौरागढ़ जिले के तीन तालुकाओं धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के लगभग सौ गांवों में होली नहीं मनाई जाती है। यहां के लोग अप्रिय घटनाओं के डर से होली खेलने और जश्न मनाने से बचते हैं। पिथौरागढ़ जिले के चीन और नेपाल सीमा से लगे तीन तालुकाओं में होली की खुशी गायब है। हमारे पूर्वजों के समय से चली आ रही यह मान्यता आज भी नहीं टूटी है।
इन तालुकाओं में होली न मनाने के कारण भी अलग-अलग हैं। मुनस्यारी में होली न मनाने का कारण इस दिन किसी अनहोनी की आशंका है. डीडीहाट का दुनाकोट क्षेत्र एक अपशकुन है, जबकि धारचूला के गांवों में छिपलकेदार के उपासक होली नहीं मनाते हैं। धारचूला के रांती गांव के बुजुर्गों के अनुसार, रांती, जुम्मा, घेला, खेत, सयांकुरी, गर्गुवा, जामकु, गलाती और अन्य गाँव भगवान शिव के पवित्र स्थान हैं। यह स्थान छिपलकेदार में स्थित है। शिव की भूमि पर पूर्वजों के अनुसार रंगों का प्रचलन नहीं है। यह सब हमारे पूर्वजों ने हमें बताया था और हम अपने बच्चों को बताते आये हैं।
मुनस्यारी में होली गीतों के दौरान अक्सर दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं होती रहती थीं।
मुनस्यारी के चौना, पापड़ी, मालुपाथी, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, मनीटुंडी, पालकुटी, फाफा, वादनी समेत कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती। चौना के बुजुर्ग बाला सिंह चिराल बताते हैं कि होल्यार होली खेलने के लिए प्रसिद्ध भराड़ी देवी मंदिर जाते थे। तभी एक सांप ने उनका रास्ता रोक लिया। इसके बाद जो भी होली का महंत बनेगा या होली गाएगा, उसके परिवार में कुछ अप्रिय घटित होगा।
डीडीहाट में होली पर अशुभ संकेत
डीडी के दूनकोट क्षेत्र के ग्रामीणों का कहना है कि पहले गांवों में होली मनाने के दौरान कई तरह के अपशकुन देखने को मिलते थे. पूर्वजों ने उन अशुभ संकेतों को होली से जोड़ा था। तभी से होली न मनाने की परंपरा बन गई। यहां के ग्रामीण आसपास के गांवों में होने वाले होली उत्सव में भी भाग नहीं लेते हैं।